Kashmir Files - एक समीक्षा
मैंने अपने जीवन के दस साल कश्मीर घाटी में भारतीय सेना के एक अधिकारी के रूप में बिताए हैं। कश्मीर को समझने के लिए ये आवश्यक है की आप यहाँ की धरती, लोगों व् पृष्ठभूमि से सीधे जुड़े। अन्यथा आप यहाँ मौजूद समीकरण को शायद उचित दृष्टिकोण से न देख पाएं।
Kashmir Files के एक दृश्य में मिथुन चक्रवर्ती फिल्म के नायक कृष्णा से, जो कि एक छात्र है, पूछते हैं कि क्या उसे पता है कि गोली लगने पर कैसा आभास होता है? क्या उसने कभी किसी इंसान को जलते हुए देखा है ?
समस्या ये है कि किसी भी विषय पर देश के युवाओं की जानकारी सोशल मीडिया के इर्द गिर्द घूमती है। क्योंकि वे सच नहीं जानते, इसलिए उन्हें ब्रेन वाश करना काफी आसान होता है । और यही कृष्णा के साथ भी होता है। राधिका जो की उसी के कॉलेज में एक प्रोफेसर है, इसी गैप का फायदा उठा कर, उसकी सोच को आतंवादियों की सोच के साथ जोड़ देती है। आज आपको हमारी यूनिवर्सिटीज में धर्म के आधार पर जब छात्र बंटे हुए नज़र आते हैं, तो यह इसी मानसिक शोषण का परिणाम है।
एक अन्य दृश्य में जब कृष्णा, राधिका को बताता है कि हालत चाहे जैसे हों परन्तु राज्य सरकार तो मौजूद है। इस पर राधिका कहती है कि सरकार चाहे उनकी हो लेकिन सिस्टम तो हमारा है। 1990 के दशक में राज्य सरकार भले ही फारूख अब्दुल्ला की थी परन्तु सिस्टम और हुकुम आतंकवादियों का चलता था। आगे चलकर इस समीकरण के भयावह परिणाम देखने को मिले।
कश्मीरी पंडितों का घाटी से पलायन एक बहुत बड़ी व् गंभीर घटना थी। जैसा की Kashmir Files में दिखाया गया है, उन्हें सिर्फ तीन विकल्प दिए गए थे -
-धर्म परिवर्तन करो
-या भाग जाओ
-अन्यथा मारे जाओ।
आपसे पूछना चाहूंगा कि अगर आपको ये तीन विकल्प दिए जाएँ, तो आप क्या चुनेंगे? कश्मीरी पंडितों को अपने ही घर से बाहर कर दिया गया। मैं उनके दर्द को समझता हूँ क्योंकि भारतीय सेना में अपने कार्यकाल के दौरान, मैं कईं वर्षों तक अपने घर से दूर रहा। आपका घर महज एक इमारत नहीं होता। इसके साथ जुड़ी होती हैं आपकी भावनाएं, आपके सपने , आपका भविष्य। कैसा लगा होगा कश्मीरी पंडितों अपने घर, अपने खेत खलिहान, अपनी ज़मीन को पीछे छोड़ते समय?
परन्तु यहाँ बात उस बर्बरता की है जिसका इस्तेमाल कर उन्हें मजबूर किया गया पलायन के लिए। Kashmir Files के अंतिम दृश्य में, 19 जनवरी 1990 को हुए नरसंहार को दिखाया गया है जिसे देख कर, सभी दर्शक भौचक्के रह गए। थोड़ी देर के लिए जैसे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया।
क्या कोई भी व्यक्ति, चाहे वो आतंकवादी ही क्यों न हो, इतना क्रूर हो सकता है ? क्या एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के साथ इतना अमानवीय व्यवहार कर सकता है? क्या एक महिला को आरे की मशीन पर बांधकर दो भागों में काटा जा सकता है ?
और जब यही आतंकवादी, नेताओं के साथ खड़े हो कर, मुस्करा कर , तस्वीरें उतरवाते हैं , तो एक कश्मीरी पंडित जिसने अपना सब कुछ खो दिया हो, उसे कैसा प्रतीत होता होगा सिवाय लाचारी और मजबूरी के?
परन्तु हम सब भी इस त्रासदी में बराबर के ज़िम्मेदार हैं। हमने कभी इस तथ्य को स्वीकार ही नहीं किया कि इतना बड़ा जनसंहार और पलायन हुआ है। हम अपनी ज़िंदगियाँ ऐसे जीते रहे जैसे कुछ हुआ ही न हो ! और कश्मीरी पंडित पुनर्वास कैम्पों में एक ज़िल्लत का जीवन गुजारते रहे। वे अपने ही देश रह रहे ऐसे शरणार्थी थे जिनके पास सब कुछ होते हुए भी, कुछ नहीं था।
आज करीब 40 साल बाद, एक फिल्म बनी जो इस देश की आत्मा को झंझोर रही
है। याद दिला रही है एक ऐसी शर्मसार घटना की जो हम भूल चुके हैं मानो वे रेत पर खिंची चंद लकीरें थीं।
विवेक अग्निहोत्री व उनकी पूरी टीम बधाई के पात्र हैं जिन्होंने ऐसे संवेदनशील विषय को उजागर किया। यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य था जिसमें सच कहने के साहस और आत्मविश्वास की आवश्यकता थी। एक ऐतिहासिक मुद्दे को जिस बारीकी और समझ से पेश किया गया है, वो काबिले तारीफ है। इस फिल्म के सभी पक्ष मजबूत है, बात चाहे लेखन की हो, अभिनय की या निर्देशन की। सभी कसौटियों पर ये फिल्म खरी उतरती है।
परतु मेरे विचार में इस फिल्म का सबसे पुख्ता हिस्सा cinematic storytelling है जो दर्शकों के मन और मस्तिष्क को गहरे से छूती हैं। फिल्म की cinematography अव्वल दर्जे की है जो कश्मीर की ख़ूबसूरती, सभ्यता और संघर्ष को प्रभावशाली रूप में अंकित करती है।
अपने ही स्वर्ग से पलायन के लिए मजबूर कश्मीरी पंडितों के दर्द व् पीड़ा का चित्रण इतनी मार्मिकता से किया गया है कि फिल्म समाप्त होने के बाद भी दर्शकगण हतप्रभ से अपनी सीटों पर बैठे रहते हैं।
जिस तरह की भीड़ इस समय सिनेमा हॉल्स में इस फिल्म को देखने के लिए मौजूद है, उससे ये साफ़ ज़ाहिर है कि संजीदा फिल्मों और कड़वे सच का सामना करने के लिए हमारे दर्शकगण तैयार हैं।
कश्मीर भारत का ताज़ है, हमारी सभ्यता का एक बेजोड़ उदहारण। इस ताज़ की सुरक्षा के लिए मैंने अपने जीवन का एक दशक से भी ज़्यादा हिस्सा कश्मीर में, भारतीय सेना के एक अधिकारी के रूप में, बिताया है।
कश्मीर आज भी मेरे सपनों में है, मेरे दिल की गहराईयों में है।
हवा में लहराती चिनार की वो रूमानी सी पत्तियां, आसमान से बातें करते देवदार के वृक्ष, नीले पानी के जलस्रोत, सफ़ेद बर्फ से ढकी पहाड़ियां, रंग बिरंगे फूलों से महकती वादियाँ, वो कोयल की कूक , वो झिलमिलाती झीलों के शिकारे - सच में , अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यहीं है।
और फिर सुनाई देती है इस असीम शांति को चीरती हुई गोलियों और धमाकों की आवाज, महिलाओं और बच्चों की चीख, लाशों के अंबार और एक जाना पहचाना सा स्वर - आजादी, आजादी, आजादी।
आजादी, लेकिन किस कीमत पर?
अपने ही देशवासियों को देश निकाला दे कर!
आजादी, लेकिन किस कीमत पर?
अपने ही देशवासियों को मौत के घाट उतार कर ?
आज Kashmir Files माध्यम बन सकती है एक परिवर्तन का, वक़्त शायद करवट ले रहा है, सोचने का तरीक़ा शायद बदल रहा है।
शायद, अपने ही स्वर्ग से निष्कासित लोगों का स्वर्ग में फिर से लौटना संभव हो जाए।
शायद, गोलियों की गूँज थम जाये और हवा में तैरती चिनार की पत्तियों की सरसराहट एक बार फिर सुनाई पड़े।
शायद , हमारा उजड़ा चमन एक बार फिर से रोशन हो।
शायद।
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Another perspective on our society
Sir, sacch me movie dekh k hakka Bakka halat hogyi thi specially last scene me kitna dardnaak tha sab.. jaise ki aapne last me kha ki shayad logo ka wapas swarg me lautna sambh hojaye.. shayad.. ye movie dekh k youth ko sacchai ka pata to chla wrna hum sab ye sochte reh jate ki jo media ne uss waqt kha wo haqiqat h.. par movie dekh k Jana wo sab bas adha sacch tha..
ReplyDeleteआपका कहना बिलकुल ठीक है। जो हमने जाना था, वो सच था ही नहीं। सच तो अब उजागर हुआ है. काश,स्वर्ग से निकले गए लोग वहां वापस जा पाएं.
DeleteAapna.bade.gahri.se.isko.dehka.apaka.prays.
ReplyDeletePranshney.he
Thank you so much.
DeleteThanks.Itni samvedana see yeh sameeksha ki Gaye hai Jo sirf Dil ki gahraiyon se nikal sakti hai.
ReplyDeleteSirf ise padh Kar hi mujhe bahut kuchh samajh aa Gaya hai iski patkatha ke bare main.
Aapko salaam!
आपने ठीक कहा। कश्मीर घाटी में 10 साल बिताने के बाद, जो भी इस समीक्षा में कहा, वो दिल से कहा है। आपका आभार व् धन्यवाद।
DeleteBahut sunder sameeksha ki hai aapne! Jo baat dil ko chu gayi wo ye hai ki parivartan ho raha hai aur log jagruk ho rahe hain. Aasha karti hoon Aaj ki peedhi social media ke madhyam se sachi ko jane. Aur ghar se baghar hue log phir se apne ghar laut sakein.
ReplyDeleteसही कहा शालिनी आपने। आशा यही है कि कश्मीर में घर वापसी के रास्ते खुलें क्योंकि घोसलों को अभी भी अपने परिंदों का इंतज़ार है।
DeleteReally very touching sir. Itne saal tak jooth k parde mai the hum sab. 🙏
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने। लेकिन अंततः झूट का वो पर्दा गिर गया है , सच्चाई हमारे सामने है और अब समय आ गया है की न्याय हो, इंसाफ हो ।
DeleteRemarkable story composition....congrats sir..
ReplyDeleteThank you so much Lalit.
Deleteएकदम सटीक लेख लिखा है आपने इस मूवी के विषय में। कई कई पीढ़ियाँ निकल जाती है पर फिर भी ऐसे हादसे या कहें कि इस तरह कि दरिंदगी को नहीं भुलाया जा सकता। ऐसा ही एक बार 1947 में भी हुआ था जब लाखों लोगों को अपना बसा बसाया घर छोड़ कर खाली हाथ अपने कई परिजनों की बलिदानी देकर बेघर होना पड़ा था।
ReplyDeleteआपने सही कहा मनीष। 1947 में पलायन दो देशों के बीच हुआ था। 1990 में पलायन देश के भीतर हुआ इसलिए इस बात को समझना और स्वीकार करना कठिन है। शायद हम इतनी बड़ी ऐतिहासिक त्रासदी को सुधार सकें।
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